उत्तराखंड का परिचय भाग २
2. मध्य हिमालय:-
यह श्रेणी महान हिमालय के दक्षिण में है जो कि 75 किलोमीटर चौड़ी है। इस उपप्रदेश में अल्मोड़ा, पौड़ी गढ़वाल, टिहरी गढ़वाल तथा नैनीताल का उत्तरी भाग सम्मिलित किया जा सकता है। इस क्षेत्र की पर्वत श्रेणियां पूर्व से पश्चिम मुख्य श्रेणी के समानान्तर फैली हुई हैं, जो सामान्यतः 3000-3500 मीटर ऊंची हैं, जिनका निर्माण करने वाली चट्टानों में नाइस, ग्रेनाइट, शैल व स्लेट आदि मुख्य हैं। इस क्षेत्र में वलित एवं कायान्तरित शैलों से निर्मित श्रेणियां व गहरी घाटियां स्थित हैं। यहां पर 500 से 1200 मीटर की ऊंचाई तक अनेक नदी घाटियां स्थित हैं। नैनीताल जिले में 25 किलोमीटर लम्बी व 4 किलोमीटर चौड़ी पेटी में अनेक ताल स्थित हैं जिनमें प्रमुख हैं-नैनीताल, नौकुचिया ताल, सातताल, खुरपाताल, सूखाताल, सरियाताल एवं भीमताल।
Uttarakhand ka Parichay |
शोत ऋतु में यहां कड़ी सर्दी पड़ती है। पर्वतीय श्रृंखलायें हिमाच्छादित रहती हैं, किन्तु निचले भाग गर्म रहते हैं। ग्रीष्मकालीन मानसून द्वारा यहां भारी मात्रा में वर्षा होती है। वार्षिक वर्षा की मात्रा 160-200 सेन्टीमीटर के मध्य है। ग्रीष्मकालीन मौसम शीतल व सुहावना होता है अतः ग्रीष्म ऋतु में मैदानी भागों से लोग नैसर्गिक सौन्दर्य का आनन्द प्राप्त करने तथा स्वास्थ्य लाभ के लिये इस प्रदेश में आते हैं।
वन संसाधनों व आर्थिक क्रिया-कलापों तथा मानव निवास की दृष्टि से यह क्षेत्र सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। इस क्षेत्र में वनों का अधिक विस्तार है। इस कारण इनका बड़े पैमाने पर दोहन एवं उपयोग किया जाता है।
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इस क्षेत्र में शीतोष्ण कटिबन्धीय सदाबहार वाले सघन वन मिलते हैं। सम्पूर्ण क्षेत्र के 45-60 प्रतिशत भाग वनाच्छादित हैं। चीड़, बांझ, देवदार व सुरई आदि वृक्षों का बाहुल्य है। वृक्षों की लकड़ी मुलायम होती है। काष्ठ उद्योग व अन्य कार्यों के लिए लकड़ियाँ अत्यन्त उपयोगी हैं, किन्तु किन्हीं क्षेत्रों के वनों की दुर्गमता इनके उपयोग में बाधक है।
इस क्षेत्र की मिट्टी पथरौली, हल्की व कम उपजाऊ है, फिर भी 7000-10000 फीट की ऊंचाई पर उपजाऊ मिट्टी वाली नदियों की घाटियों तक पर्वतीय ढालों पर सीढ़ीदार खेत का निर्माण कर, कृषि की जाती है।
पाइन की सड़ी पत्ती तथा गोबर की खाद का उपयोग करके मिट्टी की उर्वराशक्ति में वृद्धि की जाती है। 2000 मीटर से 2500 मीटर ऊंचाई वाले उपजाऊ क्षेत्रों में ढाल, मिट्टी की किस्म, जल की प्राप्ति आदि अनुकूल दशाओं के आधार पर खरीफ (ग्रीष्म) व रबी (शीत) की फसलें उत्पन्न की जाती हैं। उच्च घाटियों के सामान्य ढालों पर सीढ़ीदार खेतों तथा घाटियों के निचले सिरों पर उत्तम कोटि का धान उत्पन्न किया जाता है। इसके अलावा महुवा, गेहू, आलू, बक व्हीट (Buck Wheat) मिर्च तथा मक्का खरीफ की प्रमुख फसलें हैं। मक्का की कृषि अल्मोड़ा में मुख्य रूप से की जाती है। अलकनन्दा की घाटी में ज्वार की प्रमुख किस्म चुआ (Chua) पर्याप्त मात्रा में उत्पन्न होता है। खाद्यान्न के अतिरिक्त 1500 से 2000 मीटर ऊंचे कुमाऊं के झील वाले क्षेत्र में मटर, बन्दगोभी, अदरक, आलू, प्याज आदि शाक भाजियों को कृषि को जाती है। इस प्रदेश में शीतोष्ण कटिबन्धीय फल मुख्यतः आडु खुमानी, सेव, नाशपाती, चेरी व अखरोट आदि 2500 मीटर तक की ऊंचाई में उत्पन्न किए जाते हैं। औद्योगिक दृष्टि से यह क्षेत्र आवागमन के साधनों के धीरे-धीरे विकसित होने के कारण विकास कर रहा है। इस क्षेत्र में कुछ मात्रा में तांबा (अल्मोड़ा, पौड़ी गढ़वाल), एस्बस्ट्स (पौड़ी गढ़वाल). ग्रेफाइट (पौड़ी गढ़वाल, अल्मोड़ा) जिप्सम और मैग्नेसाइट आदि के खनिज भण्डार पाए जाते हैं। किन्तु इनका अभी तक उत्खनन नहीं हो पाया है। पर्वतीय ऊन योजना, उद्योग विभाग द्वारा इन क्षेत्रों में चलाई जा रही है।
3. शिवालिक तथा दून:-
यह प्रदेश मध्य हिमालय के दक्षिण में विस्तारित है। इसको वाह्य हिमालय के नाम से भी पुकारा जाता है। इस क्षेत्र का विस्तार 600 मीटर से 1500 मीटर तक ऊँचाई वाले क्षेत्रों में है। शिवालिक श्रृंखला संगुटिकाश्म, बालुकाश्म, पंकाश्म और मृत्तिका द्वारा निर्मित है, जो अत्यन्त मुलायम और तीव्र क्षरणीय है। अपरदन, भूक्षरण, भूस्खलन यहां बहुत होता है। इस क्षेत्र से निकलने वाली नदियों में अत्यधिक अवसाद के कारण जल नहीं दिखाई देता। शिवालिक श्रेणियों को हिमालय की पाद प्रदेश की श्रेणियां कहते हैं। शिवालिक एवं मध्य श्रेणियों के बीच चौरस क्षैतिज घाटियां (Longitudinal valleys) पाई जाती हैं, जिन्हें दून कहा जाता है। दून का अर्थ घाटियों से है। इन्हीं दून घाटियों में 24 से 32 किलोमीटर चौड़ी 350 से 750 मीटर ऊंची देहरादून की घाटी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, जो कि उत्तराखण्ड की राजधानी है। यह यमुना नदी के मैदानी भाग में प्रवेश करने वाले स्थान से 72 किलोमीटर उत्तर पश्चिम में स्थित उत्तराखण्ड के दूनों में देहरा, चौखंबा, कोठरी, पतली तथा कोटादून आदि हैं।
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इनमें देहरादून सबसे बड़ा व विकसित है। कोटदून का विस्तार और और कोसी नदियों के बीच है जबकि पतली दूत कोसी व पश्चिमी रामगंगा नदियों के मध्य स्थित है। यहां जिम कार्बेट नेशनल पार्क स्थित है। कोठरी और चौखवा दून, पश्चिमी रामगंगा और गंगा एवं देहरादून, गंगा व यमुना नदियों के मध्य स्थित है। मुख्य सीमांत भरा द्वारा शिवालिक तथा लघु हिमालय अलग होते हैं। अपेक्षाकृत स्थिर पेटी होने के कारण अंचल की लगभग 80 प्रतिशत जनसंख्या लघु हिमालय में निवास करती है। शिवालिक श्रेणियों का क्रम नदियों द्वारा स्थान स्थान पर विच्चिन कर दिया गया है। हरिद्वार में गंगा नदी द्वारा शिवालिक क्रम विच्छिन्न कर दिया
गया है तथा वहीं से पर्वतीय प्रदेश का अन्त तथा मैदानी भाग का आरम्भ होता है
शिवालिक क्षेत्र की जलवायु कुमाऊं की अपेक्षा गर्म एवं आई है। ग्रीष्मकालीन तापमान 29.40-32.80 सेण्टीग्रेड रहता है। शीत ऋतु का तापमान 4.40-7.20 सेण्टीग्रेड रहता है। वार्षिक वर्षा की मात्रा 200-250 सेण्टोमीटर है।
इस प्रदेश के उत्तरी ढाल सघन वनों से ढके हैं। यहां के वन आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। शीशम, सेमल, आंवला, बांस तथा साल के वृक्ष निचले भागों में एवं चीड़, देवदार, ओक व बांझ के वृक्ष अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में पहाड़ियों के ढालों पर मिलते हैं। वनों पर आधारित उद्योग, कागज, कत्था, स्लीपर, फर्नीचर निर्माण के उद्योगों का विकास हुआ है।
खनिज पदार्थों की दृष्टि से यह क्षेत्र महत्त्वपूर्ण है। देहरादून के मन्दारसू व बाड़ाकोट क्षेत्रों से लाखों टन चूना प्राप्त होता है। डोलोमाइट चट्टानों से उपलब्ध चूने द्वारा पर्याप्त सीमेन्ट बनाई जा सकती है। ऋषिकेश के समीप चूने की 6 पेटियों का पता चला है। बालू का पत्थर, संगमरमर, जिप्सम व फास्फटिक शेल इस प्रदेश के अन्य खनिज पदार्थ हैं।
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देहरादून इस क्षेत्र का सबसे बड़ा नगर है जो उत्तराखण्ड राज्य की राजधानी भो है। उत्तरी रेलमार्ग पर्वतीय क्षेत्र में यहीं समाप्त होता है। सर्वे आफ इण्डिया इण्डियन मिलेट्री एकेडमी व वन अनुसंधान संस्थान यहाँ पर हैं। वनोपज सम्बन्धी उद्योग, फर्नीचर व स्लीपर निर्माण उद्योग यहां पर विकसित है एवं कागज व सोमेंट के कारखाने भी स्थापित हैं। शिवालिक क्षेत्र में रानीखेत काष्ठ की कलात्मक वस्तुओं के लिए प्रसिद्ध है। मसूरी इस प्रदेश का रमणीक स्थल है। नैसर्गिक दृश्यों तथा स्वास्थ्य के लिए अनुकूल जलवायु होने के कारण प्रतिवर्ष लाखों पर्यटक ग्रीष्म काल में यहां आते हैं। नैनीताल एक सुंदर पर्यटन स्थल है। हरिद्वार एवं ऋषिकेश धार्मिक स्थल हैं जो विश्व का आध्यात्मिक केन्द्र है और योग के लिये प्रसिद्ध है। चकरीता, विकास नगर व राजपुर इस क्षेत्र के अन्य नगर हैं। इन सभी नगरों की सड़कें उत्तम हैं जिनमें सुगमतापूर्वक यात्रा की जा सकती है।
4. तराई व भावर क्षेत्र:-
शिवालिक श्रेणियों के दक्षिण में मैदानी क्षेत्र से लगा हुआ पैडीमेंट क्षेत्र दक्षिण व पूर्व व दक्षिण-पूर्व के ओर न्यून डाल वाली स्थलाकृति भावर व तराई के नाम से जानी जाती है इसमें पत्थर व बजरी की अधिकता के भावर क्षेत्र की औसत ऊंचाई 300-600 मीटर व चौड़ाई 15-30 किलोमीटर है। नदियों के कटाव से यह क्षेत्र काफी करा-फटा है। तराई क्षेत्र 100-300 मीटर ऊंचा व 80-100 किलोमीटर चौड़ा है। तराई क्षेत्र मुख्यत: चिकनी मिट्टी से निर्मित है।
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दून से पूर्व की ओर कोटद्वार, कालागढ़ तथा काठगोदाम से नीचे की ओर का भाग भाबर कहलाता है। भावर के बाद तराई का समतल भूभाग है। इन क्षेत्रों की प्रमुख वनस्पति साल, शीशम, कैल हल्दू, कत्था, सौमल, तुन, बांस, चौड़ी पत्ती वाली लताएं व वृक्ष है तराई भावर क्षेत्र जनसंख्या की दृष्टि से 1947 से पूर्व अयोग्य माना जाता था क्योंकि यहां घने जंगलों के कारण जंगली पशुओं का भय था तथा मच्छरों के प्रकोप से काला ज्वर मलेरिया आदि का खतरा था किन्तु अब इस क्षेत्र में जनसंख्या का घनत्व सबसे अधिक है।
इस क्षेत्र में उपजाऊ मिट्टी होने के कारण चावल व गन्ना इस प्रदेश की प्रमुख फसलें हैं। बनों को साफ करके ट्रैक्टरों द्वारा भूमि को कृषि योग्य बनाकर कृषि विकास योजनाओं को कार्यान्वित किया गया है। धान व गन्ना के अतिरिक्त गेहूं, जौ, प्याज व आलू भी उत्पन्न किये जाते हैं। पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय (उधमसिंह नगर) द्वारा किये गये क्षेत्रीय अनुसंधानों से इस क्षेत्र के कृषि विकास को बल मिला है। इस क्षेत्र में धान कूटने तथा शक्कर निर्माण करने को मोलें स्थापित की गई हैं। वनों से उपलब्ध बहुमूल्य लकड़ियों द्वारा फर्नीचर तथा अन्य काष्ठ का सामान भी बनाया जाता है।
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